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खुशी अपने में ढूंढ़ो 00:15:14 खुशी अपने में ढूंढ़ो Video Duration : 00:15:14 खुशी अपने में ढूंढ़ो पहले। अगर तुम नहीं खुश हो तो किसी और को कैसे खुश करोगे ?

ऐंकर : कुछ लोगों की नजर में जो चीज सही होती है, वही चीज दूसरे लोगों की नजर में गलत होती है। सही और गलत की पहचान कैसे करें ?

 

प्रेम रावत जी : सही तो सबके लिए सही होना चाहिए। और सही वो है कि ‘‘तुम भी जीवित हो, मैं भी जीवित हूं। तुम भी मनुष्य हो, मैं भी मनुष्य हूं।’’ इस संसार ने सबके अंदर बंटवारा कर दिया! और बंटवारे के तुम नतीजे में हो! क्या बंटवारा कर दिया ? तुम मर्द हो, तुम औरत हो! क्यों कर दिया बंटवारा ?

 

आए एक ही देश से, उतरे एक ही घाट। 

हवा लगी संसार की, हो गए बारह बाट।।

 

एक होना चाहिए, अनेक नहीं। एक! जबतक इस संसार के अंदर एकता नहीं होगी, ये लड़ाइयां बंद नहीं होंगी। शांति का मतलब, लड़ाई बंद करना नहीं है। शांति तो हर एक मनुष्य के अंदर होती है। पर मनुष्य लड़ता इसलिए है, क्योंकि उसके अंदर भी अशांति है। आदर चला गया। आज क्या हो गया ?

 

"तू अमीर है, तू गरीब है!" फर्क क्या है गरीब में और अमीर में ?

 

मैं बताऊं ? मैं बताऊं ? गरीब ठाट से सोता है! गरीब ठाट से — उसको न भैंस की चिंता है, न भैंसे की चिंता है। न चारे की चिंता है! खाना मिल गया, उससे वो संतुष्ट है और खूब खर्राटे मार के सोता है। उसको तो कहीं — उसके लिए तो सारा संसार एक बिस्तर है। कहीं भी लेट जाएगा, कहीं भी सो जाएगा। हमारे लिए बिस्तर बड़ी सीमित जगह में है। जब वो मिलेगा, तभी उसके ऊपर बैठ करके सोएंगे। तो भाई! समझो इस बात को! ये भेद-भावनाएं अच्छी नहीं हैं। सबका आदर होना चाहिए, क्योंकि सबके अंदर वो बैठा हुआ है। अगर तुम एक-दूसरे का आदर नहीं कर सकते हो तो तुम्हारा आदर कौन करेगा ?

 

भालू ? ऐं ? वो तो तुमको खाना चाहता है। भोजन के रूप में देखता है — "क्या स्वादिष्ट, स्वदिष्ट!" कहता है क्या ? "स्वादिष्ट!"

 

मनुष्य जब दूसरे को देखता है तो "क्या सुंदर-सुंदर बाल हैं!"

 

भालू जब तुमको देखता है, कह रहा है, "स्वादिष्ट-स्वादिष्ट पेट है। खूब चर्बी है! अच्छा स्वाद निकलेगा।"

 

तो मनुष्य हो! मनुष्य की तरह तो रहना सीखो! वो तो जानते नहीं हैं लोग! "तुम फलां-फलां धर्म के हो!" क्या मतलब? जब तुम पैदा होते हो, तुम्हारा धर्म क्या है ? जब तुम गर्भ में रहते हो, तुम्हारा धर्म क्या है ? ऐं ? ये सब संसार के बनाए हुए हैं। उसी के चक्कर में लोग बैठ करके एक-दूसरे का विभाजन करते हैं, एक-दूसरे को बांटने की कोशिश करते हैं — ‘‘तुम ये हो, तुम ये हो, तुम ये हो, तुम ये हो, तुम ये हो, तुम ये हो!’’ भाषा से विभाजन करते हैं। विभाजन करना सीख लिया, पर जोड़ना नहीं सीखा।

 

अभी तुमको मैथ, गणित विद्या नहीं आती है। पहले गणित विद्या देखो, सीखो, जानो! जोड़ना भी कोई चीज है। जोड़ो! एक-दूसरे को प्रेम से, प्यार से! क्योंकि जो तुम्हारी — क्या तुम समझते हो कि अगर कोई दूसरे धर्म का है — उसको प्यास नहीं लगती ? उसको भूख नहीं लगती ? लगती है। उसको दुःख नहीं होता ? होता है। वो भी तुम जैसा ही है। सब एक हैं!

 

अलख ईलाही एक है, भरम करो मत कोय।

 

भ्रमित मत पड़ना। और ये चीज अगर जान लो कि सब एक हैं। सब एक ही चाहते हैं। सब अपने जीवन के अंदर आनंद चाहते हैं। परंतु जबतक ये आपस में — ‘‘तुम मर्द हो, तुम औरत हो, तुम ये हो, तुम वो हो!’’ सबका आदर होना चाहिए।

 

ऐंकर : आप अक्सर कहते हैं कि हर मनुष्य में 50 प्रतिशत अच्छाई और 50 प्रतिशत बुराई होती है। पर आज लोगों में बुराई का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है और अच्छाई का प्रतिशत कम होता जा रहा है। ऐसा क्यों ?

 

प्रेम रावत जी : नहीं, बढ़ नहीं रहा है, घट नहीं रहा है। उतना का उतना ही है। वो कभी बढ़ता नहीं है। वो किसी भी —किसी भी समय नहीं बढ़ता है। किसी भी समय में घटता नहीं है। इनकी बात है!

 

देखिए! आप सोचते हैं — सबेरे-सबेरे जब सूर्य उदय हुआ तो आप लोगों ने देखा, सूर्य उदय हुआ! है न ? और शाम को आप देखेंगे कि ये सूर्य अस्त होगा। इधर से उदय हुआ, उधर से अस्त होगा। एक निश्चित समय है, जब सूर्य उदय हुआ और एक निश्चित समय है कि सूर्य अस्त हुआ। वो सिर्फ आपके लिए और आप कहां हैं ? क्या आपको मालूम है कि सूर्य हमेशा उदय होता रहता है ? सोचिए! ये पृथ्वी घूम रही है और कहीं न कहीं इस संसार के अंदर, इस पृथ्वी के ऊपर सूर्य उदय हो रहा है और कहीं न कहीं सूर्य अस्त हो रहा है। ये उदय होना और अस्त होना कभी बंद नहीं होता है। ये सिर्फ आपका दृष्टिकोण है, क्योंकि आप जिस जगह हैं, उस जगह जब आप देखते हैं कि सूर्य उदय हुआ तो आप सोचते हैं कि अब सूर्य उदय होकर खतम हो गया, परंतु खतम नहीं हुआ। अभी भी कहीं न कहीं सूर्य उदय हो रहा है और कहीं सूर्य अस्त हो रहा है! ये चक्कर हमेशा लगा रहता है।

 

अच्छाई-बुराई उतनी ही है, पर आपका दृष्टिकोण क्या है ? अच्छाई को देखने के लिए, जो आपके अंदर अच्छाई है, उसको देखने के लिए, जबतक आप नहीं समझेंगे कि इस स्वांस का आना-जाना ही भगवान की कृपा है, तो आपको अच्छाई तो — अच्छाई की परिभाषा क्या है आपके लिए ? आपके अच्छाई की परिभाषा है — आपकी मनोकामना पूरी हो! है कि नहीं ? आपकी मनोकामना पूरी हो — ये अच्छाई है आपके लिए।

 

तो बुराई भी है, अच्छाई भी है। परंतु एक अच्छाई सबके साथ हो रही है। परंतु अगर उसको समझ नहीं सकते हैं तो फिर बुराई ही बुराई नज़र आएगी! देखो! इस संसार के अंदर दया की कमी नहीं है। बहुत लोग दयालु हैं। बहुत लोग दयालु हैं! सच में, मैं सच कह रहा हूं! बहुत लोग दयालु हैं।

 

एक बार हमने देखा जयपुर में। दिल्ली से आ रहे थे जयपुर! एक जगह है बस स्टैण्ड! तो वहां देखा! एक बेचारा काफी बुड्ढा आदमी, पता नहीं कहीं गया होगा कुछ खरीदने के लिए, कुछ करने के लिए, उसकी बस चल दी। तो वो बेचारा बस के पीछे भाग रहा है, पर भाग नहीं सक रहा है। और बस और तेज, और तेज, और तेज, और तेज, और तेज, और तेज जा रही है। तो हमने कहा, ये तो बहुत बुरा हुआ!

 

तो हम कहने ही वाले थे कुछ कि ‘‘भाई! इस बस के आगे इसको रोककर के, इसको कहें कि तेरा एक पैसेंजर रह गया है’’, इतने में दो आदमी मोटर साइकिल पर थे। एकदम गए वो, उन्होंने बस रोकी — रोकवाई और ड्राइवर से कहते हैं, ‘‘एक रह गया है!’’ बस, उसने देखा कि हां! सचमुच में रह गया! उसने रोक ली और वो वृद्ध आदमी जो है, चढ़ गया उस बस के ऊपर। ये भी अच्छाई है। बस ड्राइवर भी दयालु था। वो दो लोग, जो मोटरसाइकिल पर बैठे थे, वो भी दयालु थे। अब पता नहीं, उस बुड्ढे आदमी को समझ में आई बात कि नहीं कि तीन-तीन लोगों ने उसकी मदद की कि वो आज अपने घर या कहीं भी वो जा रहा है, वो पहुंच जाए।

 

तो भाई! दयालुता की कमी नहीं है इस संसार के अंदर। परंतु निर्दयता की भी कमी नहीं है इस संसार के अंदर। जबतक प्रकाश हम अपनी अच्छाइयों पर नहीं डालेंगे, तो वही चीजें प्रबल रहेंगी, जो अच्छी नहीं है। बाकी दोनों ही चीज उतनी की उतनी ही हैं और हमेशा रहेंगी, और हमेशा रहती आई हैं।

 

ऐंकर : और अब अगले प्रश्न की तरफ बढ़ते हैं, जो कि है खुशी के बारे में। हम अपने आसपास के लोगों को खुश रखना चाहते हैं। लेकिन दूसरों को खुश रखने के चक्कर में कई बार हमें अपनी खुशियों का त्याग करना पड़ता है। इन दोनों में तालमेल कैसे बिठाएं ?

 

प्रेम रावत जी : ये दीवाली आती है। दीवाली में क्या करते हो ? दीये जलाते हो ? जलाते हो दीया ? तो कैसे जलाते हो ? पहले एक दीया लेते हो, पहले उसको जलाते हो! या पहले सारे दीये जलाते हो, उसके बाद फिर उस दीये को जलाते हो ? क्या करते हो ? पहले एक दीये को जलाते हो, फिर उससे अलग–अलग दीये को जलाते हो। ठीक यही बात करनी है। खुश हो! पहले तुम खुश हो! तुम दीया हो! अगर तुम जल नहीं रहे हो, तो और दीयों को कैसे तुम जलाओगे ? बुझा हुआ दीया कुछ नहीं कर सकता है। जलता हुआ दीया बुझाये हुए दीए को जला सकता है। खुशी अपने में ढूंढ़ो पहले। अगर तुम नहीं खुश हो तो किसी और को क्या खुश करोगे ?

 

ऐंकर : धन्यवाद! ये एक बहुत ही इंटरेस्टिंग सवाल है। आज के युग में जो लोग छल और कपट करते हैं, उनकी प्रगति होती है। जबकि ईमानदार और सच्चे लोग कहीं पीछे छूट जाते हैं। ऐसे में ये लोग अपनी अच्छाई को कैसे पहचानें ?

 

प्रेम रावत जी : देखिए! वो लोग, जो छल-कपट से प्रगति करते हैं, वो कभी अपने आपको सक्सेसफुल नहीं महसूस करते हैं। उनको मालूम है! अंदर से खटकती है बात! उनको मालूम है! और जो— मैंने देखा है। गरीब लोगों के चेहरे पर वो मुस्कान — उनके पास ज्यादा नहीं है। पर जितना है, उनका है! चाहे वो विदेश की सूट नहीं पहने हुए हैं — खद्दर के ही पैजामा है, खद्दर का ही कुर्ता है, परंतु नहा-धोकर के, अच्छे नये कपड़े पहनकर के जो उनके चेहरे पर मुस्कान है, वो बड़े-बड़े ऑफिसरों के चेहरे पर कई बार हमने नहीं देखी है। तो मुस्कान तो एक ऐसी चीज होती है कि दूसरे को देख करके अपने आप भी मुस्कुराने लगे, उसको असली मुस्कान — ये होती है असली मुस्कान! और दांत दिखाने वाली मुस्कान अलग होती है। वो उससे फिर कुछ नहीं होता है। तो सबसे बड़ी बात है कि वो जो प्रगति कर रहे हैं, उनको मालूम है कि वो प्रगति नहीं कर रहे हैं। परंतु जो है — जिसका हृदय संतुष्ट है, उसको मालूम है, क्या है!

 

ऐंकर :  जिन चीजों के बारे में हम जानते नहीं हैं या मैं ऐसा कहूं — जिन चीजों को हम नहीं समझते हैं, हमें उन चीजों से डर क्यों लगता है ?

 

प्रेम रावत जी : हां! डर तो लगना चाहिए, पर लगता नहीं है। उन्हीं चीजों के पीछे पड़ जाते हैं, जिन चीजों को हम समझते नहीं हैं। वही वाली बात है कि —

मन तू नाहक धुंध मचाए। 

कर आसमान छुए नहीं काहू, पाती फूल चढ़ाए। 

मूरति से दुनिया फल मांगे, अपने ही हाथ बनाए।। 

चलत फिरत में  — दुनिया पूजे देवी-देवरा, तीरथ बरत अन्हाए।

चलत-फिरत में पांव दुखत हैं, ये दुख कहां समाए।।

झूठी माया, झूठी काया, झूठन झूठ लखाए।

बांझी गाय दूध नहीं देवे, माखन कहां से लाए।।

साच के संग सांच बसत है, झूठन मार गिराए।

कहै कबीर जहां सांच बसत है, सहज ही दरसन पाए।।

कितनी सहज बात है। जो है सच में, उसको जानो! उसको पहचानो!

 

 

असली तोहफा 00:15:12 असली तोहफा Video Duration : 00:15:12 तुम्हारे लिए भी एक तोहफा है। क्या है वो तोहफा ? एक अलग सोचने का तरीका।

इस संसार के अंदर जब लोगों से यह चर्चा होती है कि ऐसी कोई चीज है, शांति भी कोई चीज है, तो सबसे पहले लोग यही कहते हैं कि ‘‘जी! यह तो असंभव है!’’

 

हम कहते हैं, क्यों असंभव है ? काहे के लिए असंभव है ?

 

अब लोगों के साथ यह है कि ये कैसे करोगे ?

 

तो हम लोगों से यही कहते हैं कि भाई! अगर ये जो अशांति है इस संसार के अंदर, अगर वो भेड़ों की वजह से हो या बकरी की वजह से हो या बंदरों की वजह से हो तो ये तो मुश्किल हो जायेगा। क्योंकि भेड़ के साथ कैसे बात करेंगे कि तू क्रांति मत फैला ? या बकरी से कैसे कहें कि तू क्रांति मत फैला ? परंतु ये सब चक्कर मनुष्य का बनाया हुआ है। और मनुष्य एक ऐसी चीज है कि अगर उसकी समझ में आ गया तो वो बदल सकता है।

 

जैसे रत्नाकर डाकू था, जब उसकी समझ में आया तो वह भी बदल गया। तो बड़े-बड़े भी बदल सकते हैं, अगर उनकी समझ में आ जाए। तो मैं तो ये कहता हूं उन लोगों से कि यह तो बड़ी खुशखबरी है कि ये मनुष्य ने फैलाई है। क्योंकि कम से कम अगर मनुष्य ने फैलाई है तो वो उसको खत्म भी कर सकता है, अगर उसकी समझ में आ जाए। तो हम तो दुनिया को समझाने की कोशिश कर रहे हैं। और कई जगह मैंने कहा। मैंने कहा कि मैं क्या लाया हूं तुम्हारे लिए ? जब टीवी पर इन्टरव्यू होता है या रेडियो पर इन्टरव्यू होता है — क्या लाया हूं तुम्हारे लिए ? तुम्हारे लिए भी एक तोहफा है। क्या है वो तोहफा ? एक अलग सोचने का तरीका। क्योंकि आज जो भी मनुष्य सोच रहा है, जब उसको दुःख होता है तो वो किसकी तरफ उंगली फैलाता है ? भगवान की तरफ कि भगवान उसको दुःख दे रहा है। ये उसके कर्मों का फल है।

 

अब कर्म क्या होते हैं, तुमको कैसे मालूम ? कर्म होता क्या है, तुमको कैसे मालूम ? और जो तुम कहते हो कि ये पिछले जन्मों का फल है, पिछले जन्मों का ये है, ये तुमको कैसे मालूम ?

 

किसी ने कभी कह दिया। मां-बाप ने कह दिया — पिछले कर्मों का फल है। तुमने स्वीकार कर लिया। उसके बाद तोते की तरह रटते रहे — पिछले कर्मों का फल है, पिछले कर्मों का फल है, पिछले कर्मों का फल है। तकदीर का फल है, तकदीर का फल है, तकदीर का फल है। और आधे से ज्यादा अगर तुम अपनी समस्याओं को दूर करना चाहते हो तो बैठकर के यह सोचो कि कितनी चीज तुमने रट लगाकर सीखी हुई हैं और कितनी तुमने अनुभव से सीखी हुई हैं। जो रट लगाकर सीखी हुई हैं चीजें, उसके बारे में तुम कुछ कह नहीं सकते। जैसे पानी को — भाषा जो है न, वो भी रट लगाकर सीखी जाती हैं। उसका कोई तुक नहीं है भाषा का। तुमने सुना अपने मां-बाप को बोलते हुए और तुमने भी सीख लिया।

 

तो पानी को पानी क्यों कहते हैं ? नहीं मालूम न ?

 

एक को एक क्यों कहते हैं ? नहीं मालूम।

 

क्योंकि ये सब रट से सीखा है। और अनुभव से क्या सीखा है ?

 

मां ने कहा, ‘‘इसे मत छू, यह गरम है।’’ यही पर्याप्त था तुम्हारे लिए ? जब तुम छोटे थे, मां ने कहा, ‘‘इसको मत छू, यह गरम है।’’ यही पर्याप्त था ?

 

छुआ! जब छुआ, तब अहसास हुआ, यह गरम है। इससे जलता है, इससे दर्द होता है। उसके बाद अनुभव से तुमने सीखा और आज तुम भी लोगों को सिखाते हो, ‘‘इसको मत छू, यह गरम है। इसको मत छू, यह गरम है।’’ तो ये बात है सारे संसार की। किसी ने किताब से पढ़ लिया, रट लगा ली — ततततततत...! मतलब क्या है उसका ?

 

जब महाभारत खत्म हो गई और अर्जुन अपने महल में चले गया सब लड़ाई-वड़ाई खत्म हो गई तो भगवान कृष्ण एक दिन अर्जुन से मिलने के लिए गए। तो अर्जुन से मिलने के लिए गए तो कहा, ‘‘भाई! क्या हालचाल है ?’’

 

कहा, सब ठीक है।

 

कहा, क्या हो रहा है ?

 

कहा, नहीं, सब ठीक है। इतने साल वनवास में रहे। बड़ा अच्छा लगता है, महल में रहते हैं, एक ही जगह रहते हैं। सब हैं। सबकुछ बढ़िया है।

 

कहा, कोई कष्ट नहीं, कोई दुविधा नहीं ? कोई प्रश्न नहीं ?

 

कहा, एक प्रश्न है।

 

कहा, क्या ?

 

‘‘जी! आप ने वो बताया था न वो गीता, जो कुछ भी ज्ञान दिया था, वो मैं भूल गया। वो मैं भूल गया तो कृपा करके मेरे को दुबारा बता दो!’’

 

उसमें दो बातें हैं। एक तो वो फर्स्ट नॉलेज रिव्यू था — पहला नॉलेज रिव्यू, वो भूल गया। और जहां तक रही गीता की बात तो भगवान कहते हैं, ‘‘मेरे को भी याद नहीं है। अब जो सुना दिया तेरे को, उस समय सुना दिया। अब यह थोड़े ही है कि मैंने याद करके सुनाया।’’ और यहां लोग लगे हुए हैं उसको याद करने में। सीखने में नहीं, समझ में नहीं आयेगी बात, पर उसको रट — तोते की तरह उसको सीखने में लोग लगे हुए हैं। तो जबतक ये चक्कर तुम्हारी जिंदगी में भी चलता रहेगा, तो तुम आगे थोड़े ही जा पाओगे ?

 

एक कहावत है अंग्रेजी में कि ‘‘उड़ने के लिए पर नहीं चाहिए। उड़ने के लिए पर नहीं चाहिए, पर जो जंजीरों ने तुमको बांध के रखा हुआ है, इनको काटने की जरूरत है। अगर ये कट जाएं तो तुम अपने आप ही उड़ने लगोगे।’’

 

और ये जंजीरे हैं किस चीज की ?

 

यही सब भावनाओं की, जो लोगों ने बना रखी हैं। अनुभव किसी का कुछ है नहीं।

 

आज मेरे से पूछा गया प्रश्न में। तो जो इन्टरव्यू हो रहा था, उसमें पूछा कि ‘‘आप भगवान से मिले हैं ?’’

 

मैंने कहा, मिलने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता है। जो कभी अलग ही नहीं हुआ हो, उससे मिलना क्या है ? जो कभी अलग ही नहीं हुआ, उससे मिलेंगे कैसे ? वो तो हमेशा ही साथ है। मैंने कहा, अनुभव की बात है। अगर अनुभव की बात करो, अनुभव है ? तो हां, अनुभव है।

 

तो उसने कहा, कैसे ? आपको कैसे मालूम कि भगवान है ?

 

मैंने कहा कि —

नर तन भव बारिधि कहुं बेरो।

सन्मुख मरूत अनुग्रह मेरो।।

 

यह शरीर इस भवसागर को पार करने का साधन है और इस स्वांस का आना-जाना ही मेरी कृपा है। तो मैंने कहा, जब तुम्हारा स्वांस अंदर आता है और जाता है, इसका मतलब है क्या ? भगवान है। क्योंकि यही उनकी कृपा है। और यही कृपा है। इसी से शरीर चलता है।

 

तो बात यह है। अब ये सारा जो कुछ भी हो रहा है इस संसार के अंदर — और क्या फिर — फिर मनुष्य दुःखी होता है। फिर मनुष्य दुःखी होता है तो कहता है, ऐसे मेरे को दुःख क्यों मिल रहा है ? मैं ऐसा क्यों नहीं हूं ? मेरे साथ ऐसा क्यों नहीं है, मेरे साथ ऐसा क्यों नहीं है ? ये कब होगा ? ये कब होगा ?

 

तो जबतक हम समझ नहीं पाएंगे अपने जीवन को, तबतक तो दुःख आएगा ही आएगा। और जिस दिन समझ लेंगे कि हमको मांगने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जो हम मांग भी नहीं सकते हैं, वो हमको मिल रहा है। और किस रूप में मिल रहा है ? वो इस स्वांस के रूप में मिल रहा है। अब कैसे मांगें इसको ? हम तो इसके बारे में सोच भी नहीं सकते हैं।

 

सबसे पहले तुम मनुष्य हो! मनुष्य के नाते तुम्हारे अंदर ये स्वांस आ रहा है, जा रहा है। तुमको ज्ञान के द्वारा ये विधि मिली है कि तुम उस चीज को समझ सको, उसका तुम अनुभव कर सको। जब तुम उसका अनुभव करते हो तो क्या मिलता है ? उसके बदले में जो प्रसाद तुम्हें मिलता है, उसको शांति कहते हैं। उस शांति का प्रसाद जो तुमको मुफ्त में दिया जा रहा है, उसको ग्रहण करो! उसको फेंको मत! उसको ग्रहण करो!

 

क्योंकि लोग हैं, शंका करना चाहते हैं। शंका करना चाहते हैं! क्यों शंका करना चाहते हैं ? ये तुम्हारे में आदत कहां से आयी ?

 

याद है, जब तुम छोटे थे ? ‘‘देख के काम कर! गलती मत कर!’’

 

ये बात भी तुम्हारे दिमाग में डाली हुई है कि तुमको शंका करनी चाहिए। और तुम ऐसे भक्त हो ‘रट’ के, रट लगाने के — हर एक चीज पर शंका करते हो। ‘‘भगवान है या नहीं है ? मुझे मंदिर जाना चाहिए, नहीं जाना चाहिए ?’’

 

वही — जब इम्तिहान देने के लिए जाते हैं — क्या मैंने सही जवाब दिया ? क्या मतलब, सही जवाब दिया ? क्या मतलब, सही जवाब दिया ? आता था या नहीं आता था ? आता था तो आता था। नहीं आता था तो नहीं आता था। पर शंका करने की क्या जरूरत है ? जब घर में खाना बनाते हो तो बैठे-बैठे शंका करते रहते हो ? ना! चखते हो उसको कि नमक ज्यादा है या कम है — चखते हो! शंका का तो सवाल ही नहीं है! ये थोड़े ही है कि बैठे-बैठे, ‘‘दाल गल गयी, नहीं गली ? टाइम तो हो गया, पर हो सकता है, नहीं गली हो!’’ नहीं ? उसको उठाते हैं — गरम-गरम को ही उठाते हैं और चावल को देखते हैं कि वो बन गया ? भात बन गया या नहीं ? नहीं ?

 

तो फिर जब ये ज्ञान की बात आती है तो फिर शंका क्यों है ? अपने हृदय से पूछो! अपने अनुभव से पूछो!

 

तुम जीवित हो। जबतक तुम जीवित हो, तुम्हारे पर कृपा हो रही है। और क्या चाहिए तुमको ? और क्या चाहिए ? ये तो — इसके बाद तो जो भी तुम इस दुनिया के अंदर करना चाहते हो, यह संभव है। कोई असंभव नहीं है। संभव है! परंतु सबसे पहले क्या चीज चाहिए ? तुम्हारा जीना होना बहुत जरूरी है। अगर तुम जीवित नहीं हो तो फिर सबकुछ असंभव है। और तुम जीवित हो तो फिर सब संभव है। इसके लिए हिम्मत की जरूरत है। हिम्मत भी तुम्हारे अंदर है। हिम्मत भी तुम्हारे अंदर है! और जो कुछ भी तुम चाहते हो, इसके बारे में भी सोचो!

 

तुम वहां बैठे-बैठे सोच रहे होगे, कैसे करेंगे जी ? कैसे करेंगे जी ? कैसे करेंगे जी ? वही संशय है न ? ‘‘कर पाएंगे, नहीं कर पाएंगे! कर पाएंगे....।’’

 

अब इसका उदाहरण देता हूं मैं। और लोगों को बड़ा पसंद आता है ये उदाहरण। इन्टरव्यू में मैंने बहुत बार दिया हुआ है कि जब तुम छोटे बच्चे थे और चलना सीख रहे थे, तुम गिरे कि नहीं गिरे ? तुम्हारा उद्देश्य क्या था ? चलना। पर गिरे। फेल हुए कि नहीं हुए ? असफल हुए या नहीं हुए ? परंतु तुमने असफलता को कभी स्वीकार नहीं किया। फिर दोबारा खड़े हुए। और आज क्या करते हो ? करने से पहले — कोशिश करने से पहले सोचते हो किसके बारे में ? असफलता — सफलता के बारे में नहीं, असफलता के बारे में। और जैसे ही सोचते हो सफलता के बारे में, करेंगे ही नहीं। पहले असफलता! पहले असफलता!

 

यही तो, यही तो बीमारी है सारी दुनिया को। पहले असफलता। पर कोशिश तो करो! जैसे बच्चा करता है खड़ा होकर — जब वह पहला कदम लेता है, उसको मालूम ही नहीं कि वह चल भी रहा है। बस — त, त, त, त! उसको दिशा का कोई ज्ञान नहीं है। उसके जीवन के अंदर उस समय ऐसी प्यास है चलने के लिए, ऐसी चाह है चलने के लिए, जो उसको किसी ने सिखाया नहीं है। क्योंकि वह समझता नहीं है अभी बात — जरूरी क्या है, जरूरी क्या नहीं है ? वह चल देगा। चल देगा। और अगर असफल भी हुआ, उसको स्वीकार नहीं करेगा। फिर खड़ा होगा। यह हिम्मत नहीं है तो क्या है ? और जब इतनी छोटी-सी उम्र में तुम्हारे पास इतनी हिम्मत थी, आज तुम्हारी हिम्मत को क्या हो गया है ?

 

मतलब, तुम जीवित भी हो और तुमने जीवन को त्याग भी दिया है। अभी मौत नहीं आई है, पर जीवन को भी तुमने त्याग दिया है। क्या होगा मेरा ?

 

जो असफलता को स्वीकार करना ही नहीं चाहता है। न वह सीखना चाहता है उस असफलता को, न उसको स्वीकार करना चाहता है। जितनी बार वह गिरेगा, उसको कोई गम नहीं है। वह फिर खड़ा होगा, फिर चलेगा और एक दिन ऐसा आएगा कि चलना उसके लिए बहुत आसान हो जाएगा।

 

- प्रेम रावत

क्या कहानियां आज भी महत्त्वपूर्ण हैं? 00:07:45 क्या कहानियां आज भी महत्त्वपूर्ण हैं? Video Duration : 00:07:45

Text on screen:

बच्चों और बड़ों को कुछ समझाने के लिए क्या कहानियां आज भी महत्त्वपूर्ण हैं ?

 

प्रेम रावत:

 

देखिए! कहानी के दो कारण होते हैं। एक तो जो कहानी सुनाने वाला है, उसको अच्छी तरीके से मालूम है कि वो क्या कहना चाहता है। परंतु जो वो कहना चाहता है, वो हो सकता है कि दूसरा समझ न पाए। क्योंकि हो सकता है कि वो चैलेंजिंग भी हो! और जो सुनने वाला है, वो कहे, ‘‘नहीं!’’

 

तो कई बार कहानी एक ऐसी चीज है कि जब गोली खाते हैं न, कई गोलियां हैं, उन पर बाहर चीनी लगा देते हैं, मीठा लगा देते हैं, ताकि उसको हजम करने में अच्छा लगे, कड़वापन न आए। तो एक स्थिति, परिस्थिति और वो ऐसी परिस्थिति, जो entertaining हो! और उसके बीच में वो शिक्षा पड़ी हुई है। और बच्चा उसकी imagination जो है, वो trigger हो! तो जब बच्चा सुन रहा है उसको तो वो सोच भी रहा है और देख रहा है अपने दृष्टिकोण से कि ‘‘अच्छा! ये राजा था! वो ऐसा था! वो वैसा था! वो ऐसा था! वो ऐसा था!’’

 

अगर कहानी को प्योरिली इंटरटेनमेंट रूप से लिया जाए तो आप टेलीविजन के साथ कैसे compete करेंगे, जिसमें कहानी पूरी की पूरी है ?

 

राजा कैसे कपड़े पहनते थे, ये बच्चे को imagine करना था। अब imagine करने की क्या जरूरत है ? सिर्फ आँखें खोलिए, पर्दे पर देखिए, टेलीविजन पर देखिए और आपको दिखाई देगा कि उन्होंने कैसे कपड़े पहने हुए हैं। तलवार कैसी होती थी ? ये है, वो है! ये सारी चीजें तो imagination नहीं fire हो रही है। अब, जब मूवी देखते हैं हम, कोई भी मूवी तो हमको कुछ करने की जरूरत नहीं है। Imagine करने की जरूरत नहीं है। कहानी अपने आप unfold करेगी और उसमें जहां-जहां emphasis डालना है, वो डाला जाएगा, म्यूजिक के द्वारा डाला जाएगा, डायलॉग के द्वारा डाला जाएगा। धमाके के साथ डाला जाएगा। हमको तो सिर्फ वहां बैठना है, आँखें खोलनी है और देखते रहो!

 

कहानी ऐसी चीज नहीं है। कहानी एक very human चीज है। एक बहुत मानवता की बात है! मनुष्य की बात है! उसकी imagination trigger करने की बात है। तो सबसे पहले मैसेज क्या है ? अगर मैसेज को देखा जाए — और वो मैसेज नहीं है उसमें और सिर्फ entertainment है तो काम नहीं चलेगा। वो इसलिए नहीं चलेगा, क्योंकि आप compete कैसे करेंगे कार्टून के साथ ? आप compete कैसे करेंगे, जो वो मूवी फोन पर देख सकता है, वो अपने आई-पैड पर देख सकता है या अपनी टेबलेट पर देख सकता है या अपने कम्प्यूटर स्क्रीन पर देख सकता है या टेलीविजन पर देख सकता है। Impossible! संभव नहीं है। तो एक मूवी है, जो टेलीविजन पर देखता है और एक मूवी है, जो वो अपने दिमाग से देखता है। कहानी है वो चीज, जो वो टेलीविजन {इशारा करते हुए} यहां से देखे! तो सारा उसको, सारे एक्टर उसको लाने हैं। सबकुछ — ड्रामा उसको लाना है, सबकुछ लाना है। और वो इतना engage हो जाता है उसमें —

 

जब मैं छोटा था, मैं कहानी का मेरे को इतना शौक था कि आप पूछिए मत! जो कोई भी मेरे को कहानी सुना सकता था, मैं उसके पास जाकर बैठ जाता था, ‘‘सुनाओ!’’ सबेरे हो, शाम हो, दोपहर हो! और ये imagine! क्योंकि उस समय —टेलीविजन नहीं आया था। सिर्फ रेडियो था। और रेडियो की भी बहुत थोड़ी-सी चैनल थी। और सबेरे-सबेरे थोड़े से भजन आते थे, फिर खबर आती थी, फिर थोड़ी और खबर आती थी और उसको दोहराया जाता था, फिर रेडियो बन्द! फिर लंच टाइम के समय थोड़ा-सा और रेडियो आता था, फिर रेडियो बंद! फिर शाम के समय रेडियो आता था। मतलब, रेडियो भी हमेशा नहीं चलता था। तब entertainment के लिए क्या करें ?

 

वो कहानियां explore करना, बाहर जाना, पेड़ को देखना, आम चखना, लीचियों को चखना! और सारे दिन, गर्मियों के दिन यही करना। तो ये चीजें आज बहुत दुर्लभ हो गई हैं। हैं! दुर्लभ हो गई हैं। आदमी को खींच के रखा हुआ है। अब मैं नहीं कह रहा हूं कि टीवी गलत है। मैं ये नहीं कह रहा हूं। मैं नहीं कह रहा हूं कि जो मूवीज़ हैं, वो गलत हैं। नहीं। ये तो होगा। बात ये है कि मनुष्य को सोचने की जरूरत है। और अपने बारे में सोचने की जरूरत है। और जहां तक कहानियों की बात है — जब वो आदमी के लिए मैसेज क्लीयर है तो वो कहानी सुना सकता है।

 

क्योंकि कहानी एक आदमी के हृदय से, एक आदमी के दिमाग से दूसरे की तरफ जा रही है। और ये चीज बहुत जरूरी है।

 

अब एक बात मैं थोड़े रूप में कहता हूं। हो सकता है कि आगे जाकर इसका और खुला-खुलासा हो! तो ये है कानून दो मोमबत्तियों का। यह भी एक कानून है। अगर एक मोमबत्ती जल रही है और एक मोमबत्ती बुझी हुई है और आप दोनों मोमबत्तियों को साथ में लगाएं तो कानून यह है कि जो जल रही है, वो बुझी हुई मोमबत्ती को जला देगी। कानून यह नहीं है कि बुझी हुई मोमबत्ती जलती हुई मोमबत्ती को बुझा दे। यह कानून है! प्रकृति का कानून है! और इसकी वजह से जो मोमबत्ती जल रही है, उसमें ये क्षमता है कि वो दूसरी मोमबत्ती को जला दे। यह सबकी जिम्मेवारी है। हर एक मनुष्य जो है इस संसार के अंदर — चाहे वो मर्द हो, चाहे वो औरत हो, चाहे वो बच्चा हो, चाहे वो बूढ़ा हो — यह सबमें क्षमता है। बात ये नहीं है कि जो जलती हुई मोमबत्ती है, उसको लम्बा होना चाहिए, उसको बड़ा होना चाहिए। ना! चाहे वो बहुत छोटी-सी क्यों न हो, पर जल रही हो तो वो बहुत बड़ी, लम्बी-चौड़ी बुझी हुई मोमबत्ती को भी जला सकती है। तो हो सकता है कि आगे इसका और खुलासा किया जाए। पर यह बात बहुत जरूरी है। और ये कहानियां, ये संदेश इसीलिए जरूरी है लोगों तक पहुंचे। क्योंकि यह उनको include करता है। यह नहीं है कि इस टेलीविजन को देखिए! यह टेलीविजन बढ़िया है या इस मूवी को देखिए! या ये करिए, वो करिए! नहीं! जो आपके पास है, उसको देखिए! जो आप हैं, उसको जानिए! जो आप हैं, उसको पहचानिए! यह आप पर निर्भर है।

तनावमुक्त कैसे हो सकते हैं ? 00:12:29 तनावमुक्त कैसे हो सकते हैं ? Video Duration : 00:12:29 परेशानियों को हटाना संभव नहीं है, परंतु उनसे परेशान न होना संभव है!

Text on screen : आज के समय में समस्याओं का समाधान करके तनावमुक्त कैसे हो सकते हैं ?

प्रेम रावत:

हर एक मनुष्य के पीछे समस्या है, परंतु समझने की बात ये है कि हम चाहते हैं कि वो समस्याएं खतम हो जाएं। वो समस्याएं कभी खतम नहीं होंगी। समस्या, ये समझिए कि एक ऐसी मक्खी है कि आपके ऊपर है, आपने ऐसे किया, आपको छोड़ करके वो किसी और के — किसी और पर बैठ जाएगी। तो समस्याएं तो ऐसी हैं कि हम ही उनके victims हैं। मनुष्य को ही वो परेशान करती हैं और वो पता नहीं, कितने रूप में आती हैं, जाती हैं और इस पृथ्वी पर वो समस्याएं बनी रहती हैं। अर्थात् समस्या वही हैं, आदमी बदलते रहते हैं।

तो समस्याओं से दूर होने का क्या हल है? दूर या नजदीक — इनसे आप नहीं हो सकते। ये तो आपके पीछे लगेंगी। बात है आदमी के दृष्टिकोण की कि "क्या ये सचमुच में मेरी समस्या है या नहीं? मैं कौन हूं और ये समस्या क्या हैं?" कौन नहीं है — अब कई लोग हैं, जो कहते हैं कि "हमको ये रहता है कि ये काम समय पर करना है। ये काम हमको निभाना है।" अब बड़े से बड़े लोग और छोटे से छोटे लोग। एक बस स्टैण्ड पर खड़ा हुआ अपनी घड़ी को देख रहा है कि "मेरी बस लेट हो गयी। मैं काम देर से पहुंचूंगा।" उसको भी चिंता है। एक ऐसा, जो कि करोड़ों का contract साइन करने के लिए जा रहा है, वो भी अपनी घड़ी को देख रहा है कि "अगर मैं टाइम पर नहीं पहुंचा तो हो सकता है, ये contract साइन न हो सके।" चिंता तो वही है और सबको सता रही है। परंतु हम कभी इस बात को इस तरीके से नहीं देखते हैं कि एक दीवाल है इधर और मैं आपको कई बार इसका reference दूंगा क्योंकि ये सारी चीज को एक context में बांधती है।

एक तरफ वो दीवाल, जिससे हम होकर के आए, जब हमारा जन्म हुआ और एक वो दीवाल, जिसमें हम प्रवेश करेंगे और कहां जाएंगे, क्या होगा? हमको कुछ नहीं मालूम। तो एक जन्म है, एक मरण है और इसके बीच में सबकुछ है। आप चाहते क्या हैं? अब किसी को कोई समस्या है, उससे पूछा जाए, "आप क्या चाहते हैं?"

"अजी! मैं इस शंका से निवारण चाहता हूं। इस दुःख से निवारण चाहता हूं।"

आपको अच्छी तरीके से मालूम है कि एक न एक दिन वो दुःख तो रहेगा नहीं। फिर आप क्या चाहते हैं? फिर क्या चाहते हैं? फिर दूसरी समस्या का निवारण चाहते हैं? तो आपको यह लगता है कि आपकी जिंदगी यहां से ले के यहां तक दुःखों से बचने के लिए है या और कुछ भी इसमें संभव है ? इसकी संभावना पूरी तरीके से आपने जानी या नहीं जानी? क्योंकि दुःख तो आएंगे — सुख भी आएगा, दुःख भी आएगा। और मैं तो लोगों से कहता हूं — अगर अब दुःखी समय चल रहा है, थोड़ी देर इंतजार करो, सुखी समय आ जाएगा। जब सुख हो जाएगा, थोड़ी देर इंतजार करो, फिर दुःख आ जाएगा। और फिर दुःख आएगा तो फिर थोड़ी देर इंतजार करो, फिर सुख आ जाएगा। तो ये होता रहता है, होता रहता है, होता रहता है, होता रहता है। परंतु जाना क्या, पहचाना क्या? किस चीज को समझे कि ये जिंदगी इन चिंताओं से मुक्त होने के लिए नहीं है।

कहा है —

चिंता तो सतनाम की, और न चितवे दास।

और जो चितवे नाम बिन, सोई काल की फांस।।

अगर किसी चीज की चिंता करनी है तो वो जो तुम्हारे अंदर जो आशीर्वाद तुमको मिला है कि —

      नर तन भव बारिधि कहुं बेरो।

      सनमुख मरूत अनुग्रह मेरो।।

क्या मैं उस आशीर्वाद का पूरा-पूरा फायदा उठा रहा हूं या नहीं ?

देखिए! जब कोई चीज बहुमूल्य हमको मिलती है — जैसे, अगर हम कहीं गए। ये उदाहरण है मेरा। खील है! किसी ने हाथ में खील रख दी। तो आपको अच्छी तरीके से मालूम है कि खील बड़ी जल्दी से गिर भी जाती है, हल्की है। उसको आपने खाया, थोड़ी गिर गई, कोई बात नहीं। कपड़ों पर गिर गई — कई लोगों को तो मैंने देखा है कि वो ऐसे कर देंगे। हटा देंगे उसको। पर अगर आपके हाथ में उतने ही हीरे हों, आप उनको खाएंगे तो नहीं! पर अगर एक गिर गया तो आप उसको ऐसे कर देंगे? नहीं। जो चीज, जिसको हम बहुमूल्य समझते हैं, जिसको मूल्यवान समझते हैं, उसकी हम क़दर करते हैं। उसको व्यर्थ नहीं खोने देते।

      सनमुख मरूत अनुग्रह मेरो।

इस स्वांस का आना-जाना ही मेरी कृपा है।

वो तो हीरों से भी ज्यादा मूल्यवान है! वही कृपा है। हम तो प्रार्थना करते हैं —  "हे भगवान! अपनी कृपा कर, मेरे को इस दुःख से बचा ले!"

भगवान कह रहे हैं — "नहीं, नहीं, नहीं! इस स्वांस का आना-जाना ही मेरी कृपा है!"

उसको हम— उसकी क़दर ही नहीं जानते हैं। उसको — खील की तरह इधर-उधर गिर रही है — कोई बात नहीं। और ऐसी चीज के पीछे पड़े हैं, जिससे मुक्त होने के लिए सबकुछ करने के लिए तैयार हैं। और वो ही समस्या तुम्हारे पास ऐसी हाथ धो के बैठी है कि तुमको परेशान करके रखेगी। क्योंकि ये उसकी प्रकृति है।

हर एक चीज की प्रकृति होती है। उस प्रकृति को समझना जरूरी है। अगर अपना ध्यान उस, जो असली चीज है, उससे निकाल दिया गया तो फिर ऐसी-ऐसी जगह जाएगा कि "ये क्यों हो रहा है? ऐसा क्यों हो रहा है? अरे बाप रे! अब ये हो गया! अरे अब मैं ...... ।" बच्चे हैं — क्या करते हैं? मेहनत करनी चाहिए पढ़ने की। और सबसे ज्यादा मेहनत करनी चाहिए बात को समझने की। क्योंकि अगर बात कोई समझ में आ गई तो आपको दोबारा-दोबारा पढ़ने की जरूरत नहीं है। वो चली गई अक्ल में। और बुद्धि एक ऐसी चीज है, उसको याद करके रखेगी। पर समझ में तो आया नहीं और उसको तोते की तरह रट रहे हैं। और जब बैठेंगे इम्तिहान में तो अगर वो तोता नहीं बोला ठीक समय पर तो वो प्रश्न तो गया।

तो यही चीज हम करते रहते हैं अपनी जिंदगी में और परेशानियां हमारे पीछे पड़ी रहती हैं। किस चीज के पीछे पड़ना चाहिए? इस दुनिया के अंदर आप अगर सुकून से रहें और सुकून वो, जो आपके हृदय से आता है, जो आपके अंदर से आता है, जो अपने आपको समझने में आता है। ये नहीं है कि बाहर सबकुछ बदल जाएगा। बाहर सबकुछ नहीं बदलेगा। समस्याएं तो फिर भी आएंगी, परंतु आपको जीने का तरीका मिल जाएगा। आपको वो रास्ता मिल जाएगा, जिससे कि वो परेशानियां आपको परेशान न करें! एक बार परेशानियां अगर परेशान करना छोड़ दें तो वो परेशानियां नहीं रहतीं। आई, गई! आई, गई!

भगवान ने आपको एक चीज दी है, वो है — सब्र! और लोग कितना सब्र करते हैं? छूट गया लोगों का। दौड़ रहे हैं, परंतु ये नहीं मालूम किसके पीछे ? फिर मैं कहता हूं — एक वो दीवाल, जब पैदा हुए। एक वो दीवाल, जब आपको जाना है! भागिए! जाएंगे कहां? जाएंगे कहां? ये एक ऐसी रेस है, ये एक ऐसी दौड़ है कि अगर आप उल्टा भी भागना चाहें तो इधर ही भागेंगे! यहां से आए, यहां जाना है! इसको कोई नहीं टाल सकता। इस तरफ भागेंगे तो इसी तरफ जाएंगे, इस तरफ भी भागेंगे तो भी इसी तरफ जाएंगे! ये एक ऐसी रेस है! ये एक ऐसी दौड़ है! तो आदमी किस चीज के पीछे दौड़ रहा है? इस चीज के पीछे दौड़ रहा है। इस चीज के पीछे दौड़ना अच्छा नहीं है। क्योंकि ये तो होगा!

कब आता है आदमियों को चैन? रिटायरमेंट के बाद, अपने आप से जीना मुश्किल हो जाता है! अपने आप से जीना मुश्किल हो जाता है! ये देखिए! एक दिन काम पर जा रहे हैं, सबकुछ है और दूसरे दिन रिटायर्ड! अब क्या करेंगे? कोई कुछ करता है, कोई कुछ करता है — बिज़ी रहने की कोशिश करता है! क्यों? जेलों में सबसे बड़ी सजा क्या है? Solitary confinement! जब मनुष्य को हर एक चीजों से हटा करके बंद कर देते हैं। अब उसके पास कौन है? सिर्फ वो है! और वो अपने साथ नहीं जी सकता। कभी सीखा ही नहीं! कभी सीखा ही नहीं! 

लोग ऐसी जगह हो जाते हैं कभी — खो गए, जंगल में खो गए और कोई है ही नहीं! सिर्फ वो ही हैं। बाप रे बाप! बचाओ! बचाओ! बचाओ! बचाओ! क्यों ? अपने आप से जीना कभी सीखा ही नहीं। और इस जिंदगी में जिसने जीना ही नहीं सीखा, तो उसके लिए ये जिंदगी है या नहीं है — परेशान है या नहीं है, एक ही चीज है। और हर एक चीज उसको परेशान करेगी। तो बात परेशानियों से बचने की नहीं है। क्योंकि मैं तो ये कहता हूं कि बारिश तो होगी, पर अगर छाता है तो भीगने की जरूरत नहीं है। बात है भीगने की, बारिश की नहीं। बारिश तो होगी। पर क्या आप भीगना चाहते हैं या नहीं?

हमको अच्छी तरीके से मालूम है, जब सर्दी का मौसम आता है, लोग कम्बल निकालते हैं। क्यों ? सर्दी तो होगी! वो तो मौसम है, सर्दी तो आएगी, पर यह जरूरी नहीं है कि आप ठंडे हो जाएं, आपको ठंड लग जाए। कम्बल ढूंढ़िए! जैकेट ओढ़िए, स्वेटर ओढ़िए, पहनिए। तो यह बात है! और जो समझदार लोग हैं, वो इस पर अमल करते हैं कि यह तो होगा! जबतक मैं हूं, परेशानियां तो आएंगी! परंतु मेरे को परेशान होने की जरूरत नहीं है। और चक्कर है परेशानी नहीं! परेशान होना। अगर परेशान — परेशानियों से आदमी परेशान न हो तो फिर उन परेशानियों का उस पर कोई असर नहीं। और यह संभव है! परेशानियों को हटाना संभव नहीं है, परंतु उनसे परेशान न होना संभव है।

सरकार और नागरिक 00:03:35 सरकार और नागरिक Video Duration : 00:03:35 सरकार और जनता के बीच एक बेहतर संवाद कैसे स्थापित हो सकता है ?

प्रश्नकर्ता:

सरकार और जनता के बीच एक बेहतर संवाद कैसे स्थापित हो सकता है ?

 

प्रेम रावत:

कहीं भी आप चले जाइए, समाज में एक बीमारी है। और वो बीमारी यह है — भगवान हो, धर्म हो, गवर्नमेंट हो, हम उनको दोषी ठहराना चाहते हैं। "मेरे जीवन  में ये नहीं है, ये नहीं है, ये नहीं है, यह भगवान की — भगवान की गलती है। भगवान को दोष दो! यह ऐसा नहीं है, यह वैसा नहीं है, धर्म को दोष दो!"

तो हम तो लग गए हैं लोगों को दोष देने में। जबतक ये कीड़ा हम अपने दिमाग से नहीं निकालेंगे हम सरकार क्या होती है, नहीं समझ पाएंगे। इस समय हालत ये है कि सरकार को चाहिए वोट और लोगों को चाहिए तरक्की। और इस पिंग-पोंग में, इस खेल में अगर थोड़ा-बहुत कहीं गुंज़ाइश है — क्योंकि सबसे पहले लोग ही जाते हैं, सरकार को सत्ता में लाते हैं वोट देकर और जैसे ही वोट दे दी, फिर उन पर आरोप के बाद आरोप, आरोप के बाद — ‘‘उन्होंने ये नहीं किया, उन्होंने ये नहीं किया, उन्होंने ये नहीं किया, उन्होंने ये नहीं किया।"

तो ये जो कीड़ा है दूसरों को दोष देने का, "उनकी वजह से नहीं हो रहा है, उनकी वजह से...।"

"मैं क्या कर सकता हूं, मैं क्या कर सकता हूं ?"

अब ये एक बात है कि जो आज देख रहे हैं हिन्दुस्तान में — स्वच्छ भारत! कितना बढ़िया आइडिया है। कितना सुंदर आइडिया है। मतलब, ये तो बेसिक चीज है। क्योंकि हमको साफ रहना — इसका मतलब है कि हम बीमार नहीं होंगे। देखने में भी अच्छा लगता है।

परंतु मैं देखता हूं कि कई जगह जो स्वच्छता होनी चाहिए, वो नहीं है। तो पहले मेरे में यही प्रेरणा आती है कि मैं गवर्नमेंट को दोष दूं। उनकी वजह से नहीं हो रहा है। परंतु मैं भी तो कुछ कर सकता हूं। अगर मैं कूड़ा फेंकना छोड़ दूं — हैं, जी ? तो क्या परिवर्तन नहीं आएगा ? क्योंकि ये कूड़ा आया कहां से ? आया कहां से ? ये आसमान से तो आया नहीं ? ये नहीं है कि बारिश शुरू हुई और कूड़ा, कूड़ा, कूड़ा, कूड़ा! नहीं। ये कूड़ा हम ही पैदा करते हैं और अगर हम ही थोड़ी-सी जिम्मेवारी लें कि हम कूड़ा न फेंकें या उसको ठीक तरीके से डिस्पोज़ करें तो इसमें असर पड़ेगा।

पर वो नहीं हो रहा है। वो नहीं हो रहा है। लोग मज़ाक उड़ाने के लिए तैयार हैं, परंतु जिम्मेवारी लेने के लिए तैयार नहीं हैं। दोष देने के लिए तैयार हैं, पर जिम्मेवारी लेने के लिए तैयार नहीं हैं। तो कोई भी चीज हो इस संसार के अंदर, मनुष्य की भी तो कोई जिम्मेवारी बनती है ? जो यहां के नागरिक हैं, उनकी भी तो कोई जिम्मेवारी बनती है ? और जबतक वो जिम्मेवारी नहीं लेंगे और वो समझेंगे कि ऐसी सरकार आए, जो उनके सारे प्रॉब्लम्स को सॉल्व कर दे, वो कभी होगा नहीं। कभी हुआ नहीं है, कभी होगा नहीं। 

शांति क्या है 00:02:34 शांति क्या है Video Duration : 00:02:34 शांति क्या है ? शांति है वह चीज कि मनुष्य अपने आप को पहचाने।

प्रेम रावत :

सबसे बड़ी बात यह है। जो भी मेरा संदेश है, वह बड़ा साधारण संदेश है कि ‘‘भाई! जिस चीज की तुमको तलाश है, वह तुम्हारे अंदर है।’’ 

अब बाहर तो हम सबकुछ करते हैं, क्योंकि बाहर हम देखते हैं, सजाते हैं अपने आपको। 

पर हम अंदर के लिए क्या कर रहे हैं ? संदेश यह है कि अंदर के लिए हम क्या कर रहे हैं ? 

क्योंकि जो कुछ भी बाहर है, वह तो अंदर से आ रहा है। अब अगर अंदर आदमी को चिढ़ लगी हुई है तो उसको कितना भी आप मुस्कुराने के लिए कहिए, जैसे ही उसका ध्यान कहीं और जाएगा और वह मुस्कुराना बंद करेगा, उसकी जो चिढ़ है, वह बाहर आ जाएगी। तो जो कुछ भी हम कर रहे हैं, वह अंदर के लिए नहीं कर रहे हैं, बाहर के लिए कर रहे हैं। और बाहर हम चाहे कितना भी परिश्रम कर लें, शांति आपके अंदर से शुरू होनी है, बाहर से नहीं। 

जो बाहर आप लक्षण देख रहे हैं शांति का, लोग अपनी धारणाएं लेते हैं कि अगर शांति हो तो ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसा होगा! उनमें लगे हुए हैं, पर उनसे शांति नहीं होगी। शांति होगी तब, जब अंदर से शांति होगी। 

अंदर की शांति ये नहीं है कि हमारी समस्याओं का हल हो जाए तो हम शांत हो जाएंगे क्योंकि हमारी समस्याएं बदलती रहेंगी। लोग समझते हैं कि ये लड़ाइयां बंद हो जाएं तो शांति हो जाएगी। यह भी शांति नहीं है। 

तो अब शांति क्या है ? शांति है मनुष्य के अंदर। शांति है वह चीज, जो कि मनुष्य अपने आप को पहचाने। 

आपके अंदर आनंद को अनुभव करने की भी ताकत है और आपके अंदर परेशान होने की भी ताकत है। ये दो ताकत जो आपकी हैं, इससे आप कभी वंचित नहीं हैं। मतलब, आप कहीं भी चले जाएं, ये दोनों चीजें आपके साथ-साथ चलती हैं। आप क्रोधित भी हो सकते हैं और आप आनंद में भी हो सकते हैं। आप प्यार भी कर सकते हैं, आप नफरत भी कर सकते हैं। दोनों चीजें आपके साथ चलती हैं। 

तो अब बात यह है कि हम किस चीज को प्रेरणा देते हैं ?

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